Wednesday, July 20, 2016

‘विरोध-रस’ विवादपूर्ण डॉ. सुधेश

विरोध-रस विवादपूर्ण

डॉ. सुधेश
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आप की  पुस्तक में आप द्वारा विवेचित विरोध-रसभी विवादपूर्ण है। आपका वाक्य है-‘आक्रोश ऊपर से भले शोक जैसा लगता है क्योंकि दुःख का समावेश दोनों में समान रूप से है...यह दोषपूर्ण धारणा पर आधृत है। शोक में दुःख की अनुभूति होती है, पर आक्रोश में क्रोध का अनुभव होता है, दुःख का नहीं। यह बात दूसरी है कि क्रोध का परिणाम दुःखद हो। कविता का जन्म दुःख से तो सारी दुनिया मानती है पर आप कविता का जन्म आक्रोश से मानते हैं, जिसके मूल में क्रोध होता है, दुःख नहीं। अपनी स्थापना में आप इस अति तक चले गए कि इस विरोधको कविता का आदि-रसघोषित कर दिया। यह शास्त्र-संगत और मनोविज्ञान समर्थित नहीं है। शास्त्र तर्काश्रित होता है और तर्क विवेक पर आधृत होता है। कोई कुतर्क बौद्धिक व्यायाम के बाद तर्क नहीं बन सकता। यदि आप मेरी बात को अन्यथा न लें तो रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तकें रसमीमांसा और चिन्तामणि-भाग-1’ पढि़ए। दूसरी पुस्तक में शुक्लजी ने मनोविकारों के बारे में लिखा है। रस-चिन्तन जैसे गंभीर विषय पर पत्रकार की तरह नहीं लिखा जा सकता, जिसे कुछ भी लिखने की जल्दी होती है।


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