विरोध-रस एक नया काव्य-रस
+विश्वप्रताप भारती
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भारतीय काव्यशास्त्र में रस का महत्वपूर्ण स्थान है। रस के
बिना कोई भी शब्द ध्वनित नहीं होता। कविता को भले ही अलंकारों से लाद दिया गया हो
लेकिन कविता को उसकी मुख्य धारा से कोई न हटा सका है। वह मुख्य धारा है- आक्रोश।
कविता आक्रोश से ही जन्मती है फिर चाहे उसमें कोई रस ढूंढा जाए। लेकिन सच ये है कि
जहां आक्रोश है वहां विरोध-रस की ही प्रमुखता हैं।
प्रख्यात तेवरीकार रमेशराज के शोध-प्रबन्ध ‘विरोध रस’ से पूर्व रस विवेचन का स्वरूप स्थिर हो गया था और भरत मुनि
ने पूर्वाचार्यों की समस्त मान्यताओं का उपयोग करके अपने रस-विषयक मत को पूर्ण
बनाने का प्रयास किया, लेकिन रमेशराज के शोध-प्रबन्ध ‘विरोध-रस’ का विवेचन इसका प्रमाण है कि यह सिद्धान्त अपने आप में
महत्वपूर्ण है, नया है।
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विश्वप्रताप भारती, बरला, अलीगढ़ [उ.प्र.]
मोबा. 8445193301
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