Sunday, March 27, 2016

‘ विरोधरस ‘---19. || विरोधरस के अनुभाव || +रमेशराज



|| विरोधरस के अनुभाव ||
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‘ विरोधरस ‘---19.



|| विरोधरस के अनुभाव ||

+रमेशराज  
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1.   व्यंग्यात्मक प्रहार-
आक्रोशित आश्रय व्यंग्य के माध्यम से गम्भीर और मर्म पर चोट करने वाली बातें बड़ी ही सहजता से कह जाते हैं। व्यंग्य तीर जैसे घाव देने की तासीर रखता है।
तेवरी के आलंबनों से दुराचारी लोगों पर आश्रयों अर्थात् पीडि़तों के व्यंग्यों की बौछार की बानगी प्रस्तुत है-
डाकुओं कौ तुम ही सहारौ थानेदारजी
नाम खूब है रहयौ तिहारौ थानेदारजी!
धींगरा ते कबहू न पेश त्यारी पडि़ पायी
बोदे-निर्बल कूं ही मारौ थानेदारजी!
आप कभी आऔ जो अपने मौहल्ला बीच
कांपि जाय गली-गलियारौ थानेदारजी!
का मजाल आंख कोई तुमसे मिलाय जाय
रोज नयी छोकरी निहारौ थानेदारजी!
योगेंद्र शर्मा, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 20
वर्णिक छंद में लिखी गयी उक्त तेवरी में व्याप्त आक्रोश का बोध् विरोधस्वरूप दरोगाजी के उस व्यक्तित्व पर निरंतर व्यंग्य के माध्यम से प्रहार करता है, जो डकैतों को संरक्षण देने के कारण बदनाम हो चुका है। जो ताकतवर के सामने तो थर-थर कांपता है किन्तु किसी न्याय की आस लिये निर्बल-पीडि़त को थाने में आता देखता है तो उसे न्याय के नाम पर केवल पिटाई और भद्दी गालियों की सौगात देता है। दरोगा की एक खासियत यह भी है कि यह जिस गली-मौहल्ले से होकर गुजरता है तो इसके राक्षसी रूप को देखकर समस्त मौहल्लेवासी थर-थर कांपने लगते हैं। इतना ही नहीं दरोगा के कारण इलाके की बहिन-बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं है। ऐसे दरोगा पर आश्रय द्वारा आक्रोश में कसा गया अपरोक्त व्यंग्य सामाजिकों को विरोध-रस के रंग से सराबोर करेगा ही।

2.   धिक्कारना
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आक्रोश से सिक्त आश्रय जब विरोध-रस की पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त करते हैं तो वे चुन-चुनकर गलत आचरण करने वाले आलंबनों को डांटने-फटकारने और उनके कुकृत्यों के प्रति उनको ध्क्किारने लग जाते हैं। यह तथ्य तेवरीकार सुरेश त्रस्तकी समाज कल्याणमें प्रकाशित तेवरी के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है-
कभी क्या जि़न्दगी लेना धर्म कोई सिखाता है-
बता फिर भाई को पगले निशाना क्यों बनाता है।
किसी की छीनकर राखी, किसी की मांग सूनी कर
अदा से देखिए पागल खड़ा वह मुस्कराता है।

3.ललकारना-
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आक्रोशित आदमी एक सीमा तक ही अत्याचार-शोषण-उत्पीड़न को मौन या अन्तर्मुखी रहकर सहन करता है, उसके बाद जब उसके आक्रोश का ज्वालामुखी फूटता है तो सख्त पहाड़ों जैसे अत्याचारियों को भी जड़ से उखाड़ फैंकना चाहता है। आक्रोशित आदमी जब अपनी तेवरयुक्त मुद्रा या भाव-भंगिमा से ललकारता है तो अच्छे-अच्छे कुव्यवस्था के पोषकों के दिल दहल जाते हैं-
हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा-बिछाया है
कफन तक नोच डाला, लाश को नंगा लिटाया है।
सभी के शीश काटेंगे कि जितने पाप के होंगे
यही सबने, यही हमने यहां बीड़ा उठाया है।
जमाखोरो कुशल चाहो अगर तो ध्यान से सुन लो
निकालो अन्न निर्धन का जहां तुमने छुपाया है।
डॉ. देवराज, कबीर जिन्दा है, पृ. 25

3.   चेतावनी देना-
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विरोध-रस की एक महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य विशेषता यह भी है कि इसका जन्म चूंकि सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना के कारण होता है, अतः विरोध के पीछे सार्थक मंतव्य या उद्देश्य छुपे होते हैं।
तेवरी में अन्तर्निहित आक्रोश और विरोध का भी अर्थ यही है कि तेवरी उन अराजक-शोषक और बर्बर शक्तियों का मुकाबला करती है जो समाज को अराजक और अशांति के वातावरण में धकेल देना चाहती हैं।
अमर क्रान्तिकारी भगतसिंह के शब्दों में -‘क्रान्ति बम-पिस्तौल या बल की संस्कृति की पोषक नहीं, किन्तु क्रान्ति में यदि आवश्यक हो तो बल का प्रयोग किया जा सकता है।’’
तेवरी का आश्रय इसी मान्यता के तहत आलंबन बने अत्याचारी वर्ग को सर्वप्रथम चेतावनी देते हुए कहते हैं-
जो हिमालय बर्फ से पूरा ढका है,
भूल मत ज्वालामुखी उसमें छुपा है।
जिस्म पर आरी न कोई अब चलेगी,
पेड़ ने हर पेड़ से अब ये कहा है।
लालटेनें पर्वतों की कह रही हैं,
घाटियों में रतजगा है, रतजगा है।
-दर्शन बेजार, एक प्रहार लगातार, पृ. 33

4.   टकराने की बात करना-
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तेवरी काव्य के आश्रय जब विरोध् से भरते हैं तो मारने-मरने के इरादों के साथ में उतरते हैं। ऐसे में सबका व्यक्तिगत आत्मालाप सामाजिक समूह का गान बन जाता है। उनके भीतर आक्रोश एक उम्मीद की रोशनी का प्रतिमान बन जाता है-
जीत निश्चित है तुम्हारी तुम अभी हिम्मत न हारो
कांप सिंहासन उठेगा तुम तपस्या तो संवारो।
वक्त के भागीरथो! चट्टान की औकात क्या है
राह खुद देगा हिमालय, ठानकर गंगा उतारो।
हो बहुत बेजारअर्जुन न्याय के कुरुक्षेत्रा में अब
आ गया है वो समय तुम क्रान्ति की गीता उचारो।
दर्शन बेजार, देश खण्डित हो न जाए, पृ. 25

5.   प्रतिहिंसा को प्रेरित करना-
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विरोध-रस के आश्रय न तो स्वभाव से हिंसक होते हैं और न व्यर्थ के किसी रक्तपात में विश्वास रखते हैं। अराजकता, अशांति फैलाना भी उनके उद्देश्य में कभी शामिल नहीं है। शोषणविहीन व्यवस्था या समाज की स्थापना के लिये उन्हें कभी-कभी मक्कार, लुटेरे, उन्मादी, अहंकारी, अत्याचारी वर्ग की हिंसा के विरुद्ध हिंसा को सांकेतिक रूप में उजागर करना पड़ता है।
विरोध-रस के आश्रयों के लिए हिंसा एक ऐसा अन्तिम मानसिक विकल्प होता है, जिसमें अंततः हिंसा के विरुद्ध ही अहिंसा का संकल्प होता है-
आ गया है वक्त अब व्यभिचारियों की खैर हो,
आबरू उनकी लुटेगी उनके घर के सामने।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 23
विरोध-रस के आश्रयों के लिए हिंसा एक ऐसा अन्तिम मानसिक विकल्प होता है, जिसमें अंततः हिंसा के विरुद्ध ही अहिंसा का संकल्प होता है-
हर तरफ हैं आंधियाँ पर ज्योति जलनी चाहिए
शैतान की शैतानियत बस अब कुचलनी चाहिए।
चैन सारा डस गयीं विषधर हुई यह टोपियां
बिष बुझी कोई छुरी इन पर उछलनी चाहिए।
अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.24
विरोध-रस के आश्रयों के लिए हिंसा एक ऐसा अन्तिम मानसिक विकल्प होता है, जिसमें अंततः हिंसा के विरुद्ध ही अहिंसा का संकल्प होता है-
शब्द अब होंगे दुधारी दोस्तो!
जुल्म से है जंग जारी दोस्तो!
आदमी के रक्त में मदमस्त जो
टूटनी है वो खुमारी दोस्तो!
दर्शन बेजार, इतिहास घायल है, पृ. 19

6.   क्रान्ति की बातें करना-
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विरोध-रस की पूरी की पूरी व्यवस्था या सत्ता का आधार ही त्रासद हालातों में परिवर्तन लाने की मांग पर टिका है। अतः यह कहना असंगत न होगा कि विरोध शोषक, धूर्त्त और मक्कार लोगों द्वारा खड़ी की गयी व्यवस्था को परिवर्तित करना चाहता है। विरोध-रस से सिक्त तेवरी-काव्य के आश्रय वर्तमान व्यवस्था के विद्रूप को देखकर भिन्नाये-तिलमिलाये-बौखलाये हुए हैं। वे केवल क्रान्ति अर्थात् वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन की रट लगाये हुए हैं-
गोबर कहता है संसद को और नहीं बनना दूकान
परचों पर अब नहीं लगेंगे आंख मूंदकर और निशान।
-देव शर्मा देवराज’, कबीर जिन्दा है, पृ.26

अब खुले नभ के तले रहने का ख्वाब है,
तैयार सवालों का तेरे यूं जवाब है
-सतीश सारंग, कबीर जिंदा है, पृ.31

राजनीति देश की खूंख्वार हुई,
आज बन्दूक की जरूरत है।
-विक्रम सोनी, कबीर जिन्दा है, पृ. 34
दर्द जब तक अगन नहीं बनता,
जिन्दगी का चमन नहीं बनता।
-राजकुमार निजात, कबीर जिन्दा है, पृ.35

क्रोध की मुद्रा बनाओ दोस्तो!
जड़ व्यवस्था की हिलाओ दोस्तो!
-सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 40

जख्म जहरीले को चीरा चाहिए,
काटने को कांच, हीरा चाहिए।
अब मसीहा हो तो कोई ऐसा हो,
देश को फक्कड़ कबीरा चाहिए।
-दर्शन बेजार, एक प्रहार लगातार, पृ. 32
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से 
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

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