|| तेवरी में विरोध-रस ||
+रमेशराज
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|| तेवरी में विरोध-रस ||
+रमेशराज
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साहित्य चूंकि समाज का दर्पण होता है अतः जो विरोध
हमें सड़कों-कार्यालयों-परिवार
आदि में दिखायी देता है, वही काव्य में सृजन का कारण बनता
है। काव्य के रूप में काव्य की नूतन विधा ‘तेवरी’ तो आक्रोशित आदमी के उस बयान की गाथा है, जिसका आलोक
‘विरोध-रस’ के
रूप में पहचाना जा सकता है।
विरोध-रस का
स्थायी भाव आक्रोश है जो आश्रयों में अपनी परिपक्व अवस्था में इस प्रकार पहचाना जा
सकता है-
दुःख-दर्दों की तनीं
कनातें,
अब अधरों पर भय की बातें।
वैद्य दिखें यमराज सरीखे,
प्राण हनें कर मीठी बातें।
फिर भी कहता खुद को सूरज,
दिन के बदले लाता रातें।
केसर की क्यारी पर देखीं,
दुर्गंधों की हमने घातें।
‘मिश्र’ क्रान्ति
आये समाज में,
भले लहू की हों बरसातें।
--तेवरीपक्ष के जुलाई-सितंबर-08
तेवरीपक्ष के जुलाई-सितंबर-08 में प्रकाशित राजकुमार मिश्र की तेवरी
दुखदर्दों की तनी कनातों के बीच भय को इसलिए उजागर करती है क्योंकि कवि-मन को प्राणों का हनन करने वाला यमराज के रूप में हर वैद्य दिखायी देता
है। सूरज जैसे किरदार अंधेरे को उगलते महसूस होते हैं। केसर की क्यारी में दुर्गंध
का आभास मिलता है। कवि को यह सारा वातावरण असह्य वेदना देता है। स्पष्ट है कि
दुराचार और भय से स्थायी भाव ‘आक्रोश’ जागृत
होता है और यह आक्रोश रस परिपाक की अवस्था में विरोध के रूप में क्रान्ति लाने के
लिये प्रेरित करता है। क्रान्ति अर्थात् शोषक अत्याचारी व्यवस्था का अंत करने का
एक सार्थक प्रयास है, जिसे केवल और केवल विरोध के रूप में ही
जाना जा सकता है।
एक अन्य तेवरीकार गिरीश गौरव यह तथ्य दलित-शोषित आश्रयों के समक्ष रखता है-
जो हमें रास्ता दिखाते हैं,
मार्ग-दर्शन में लूट
जाते हैं।
जब दीये झोंपड़ी में जलते हैं,
लोग कुछ आंधियाँ उठाते हैं।
वो खुशी का शहर नहीं यारो,
हादिसे जिसमें मुस्कराते हैं।
इसी तेवरी में आगे चलकर कवि विरोधरस से भरा यह
तथ्य भी सबके समक्ष रखता है-
हम परिन्दों की बात क्या कहिए,
क्रान्ति के गीत गुनगुनाते हैं।
गिरीश गौरव, इतिहास
घायल है, पृ.35
तेवरी-काव्य का
आश्रय बना पीडि़त व्यक्ति मानता है-
दुःख-दर्दो में जिये
जि़न्दगी, ऐसा कैसा हो सकता है
सिर्फ जहर ही पिये जि़न्दगी, ऐसा कैसे हो सकता है।
वो तो चांद भरी रातों में मखमल के गद्दों पर सोयें
फटी रजाई सिये जिन्दगी, ऐसा कैसे हो सकता है।
-योगेंन्द्र शर्मा, इतिहास घायल है, पृ. 39
एक तेवरीकार व्यवस्था-परिवर्तन का उत्तम औजार ‘तेवरी’ को बताता है-
तिलमिलाती जि़न्दगी है, तेवरी की बात कर
त्रासदी ही त्रासदी है, तेवरी की बात कर।
जि़न्दगी आतंकमय है आजकल कुछ इस तरह
पीड़ाओं की छावनी है, तेवरी की बात कर।
मौन साधे बैठा है होंठ-होंठ और अब
आंख-आंख द्रौपदी है,
तेवरी की बात कर।
नोच-नोच खा रहा है
आदमी को आदमी
हर सू दरिन्दगी है, तेवरी का बात कर।
-विजयपाल सिंह, इतिहास घायल है, पृ. 26
विरोध-रस के
आलंबन बने शोषक अत्याचारी व्यभिचारी देश-द्रोहियों की
करतूतें, आश्रय अर्थात् सत्योन्मुखी संवेदनशीलता से लैस
शोषित-पीडि़त किन्तु मेहनतकश व ईमानदार आदमी को इसलिए
आक्रोशित करती हैं क्योंकि वह देखता है-
फिर यहां जयचंद पैदा हो गये
मीरजाफर जिन पै शैदा हो गये।
दर्शन बेजार, एक प्रहार
लगातार, पृ. 35
तेवरीकार अपने चिन्तन से यह निष्कर्ष भी
निकालता है-
सूदखोरों ने हमारी जि़न्दगी गिरवी रखी
इस जनम क्या, हर जनम
गिरवी रखी।
-दर्शन बेजार, एक
प्रहार लगातार, पृ.26
एक तेवरीकार के लिये आक्रोशित होने का विषय यह
भी है-
सड़क पर असहाय पांडव देखते
हरण होता द्रौपदी का चीर है।
-दर्शन बेजार, एक प्रहार
लगातार, पृ. 21
एक तेवरीकार के मन में पनपे आक्रोश में अनेक
सवाल होते हैं। तरह-तरह के मलाल होते हैं। उसकी पीड़ा
और झुब्धता का कारण वे दरबारीलाल होते हैं, जो इस घिनौनी
व्यवस्था के पोषक हैं। अपसंस्कृति को बढ़ावा देने वाले विदूषकों की जमात की हर बात
उसे टीसती है-
पुरस्कार हित बिकी कलम, अब क्या होगा?
भाटों की है जेब गरम, अब क्या होगा?
प्रेमचंद, वंकिम,
कबीर के बेटों ने
बेच दिय ईमान-धरम,
अब क्या होगा?
दर्शन बेजार, एक प्रहार
लगातार, पृ. 39
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+रमेशराज की पुस्तक विरोधरस से
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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